जीत- साहस की

जीत- साहस की

सोमा और शीला बचपन से अच्छी मित्र थी। पड़ोसी होने के नाते दोनों ज़्यादातर समय साथ ही बिताती। जिस दिन नहीं मिलती तो ऐसा लगता कोई बड़ा काम रह गया।
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     एक दिन सोमा के घर उसकी मौसी और उनकी लड़की मधु आई थी। सोमा उन्हें देख बहुत खुश हुई। सोमा ने मधु का सामान अपने कमरे में रख लिया। उसने सोचा मधु के साथ दशहरे की छुट्टियां अच्छी बितेंगी।
    तीन चार साल बाद वो अपनी मौसी और उनकी लड़की से मिली थी। इसलिए उनकी बातें खत्म ही नहीं हो रही थी। दो दिन केसे बीत गए;पता ही नहीं चला। एक दिन मधु बोली- में तो घर में उब गई हूं। मुझे आए तीन दिन हो गए और हम लोग कही गए नहीं। हमारे यहां त्योहार पर इतनी चहल पहल रहती है कि हम एक दिन भी घर नहीं रहते।
    सोमा ने कहा मगर बाहर जाने के लिए तो पापा को माना पड़ेगा। चलो हम मेरी सहेली के घर चलते है। दो दिन से गए भी नहीं है। मिलोगी तो बहुत खुश हो जाओगी बहुत अच्छी स्वभाव की है शीला। पेंटिंग तो इतनी बढ़िया बनाती है।
   दोनों शीला के घर चली गई। सोमा ने शीला से कहा ये मेरी मौसी की लड़की है। घर पर ऊब गई तो सोचा तुमसे मिलवा दू।
    "शीला ने कहा तुम खड़े क्यों हो, बैठो।"
सोमा कुर्सी खीच कर  बैठ गई , लेकिन मधु वैसे ही खड़ी रही। वह बस शीला को देखे जा रही थी। तभी शीला बोली-"मेरे हाथ नहीं है। आपको अजीब लग रहा होगा।"
   "मधु ने कहा नहीं।" कहकर वो भी बैठ गई। थोड़ी देर बाद मधु वहा से उठ गई और शीला को भी उठना पड़ा।
    रात को जब दोनों फिर बातें करने बैठ तो मधु ने कहा -"सोमा तुम्हारी शीला से कैसी दोस्ती है? तुम्हारी जगह में होती तो कभी मित्रता ना करती। ना खेलना,न कूदना। बस सारे वक्त बातें। इस तरह तो तुम्हारी जिन्दगी भी चौपट हो जाएगी।"
  " सोमा ने कहा, नहीं मधु तुम शीला को नहीं जानती। अब से चार साल पहले वो हमारी तरह स्वस्थ और सुंदर थी। एक दिन खत मिला के नानी की हालत खराब है, तो शीला अपनी मां के साथ रवाना हो गई। जिस बस से वो लोग जा रहे थे, वह रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गई। चाची के सिर में चोट आई। मगर शीला के दोनों हाथ की हड्डियां चूर चूर हो गई। मजबूरन डाक्टरों को उसके दोनों हाथ काटने पड़े। शीला को जब होश आया तो अपने हाथ देखकर वह बहुत रोई।
 सब समझा कर रह गए। मगर वो हर बस रोती है रहती।"
कुछ समय बाद वह अस्पताल से घर आ गई। लेकिन लेटे लेटे वह ऊबने लगी तभी चाची को खयाल आया कि उसे पढ़ने का बहुत शौक है। बस फिर चाची ने उसे अच्छी अच्छी किताबें लेकर दी।
   अब उसका वक्त ठीक से गुजरने लगा। एक दिन शीला ने कहा -"मां , आप मेरी कोर्स की किताबें ला दीजिए। में पढ़ती रहूंगी। नहीं तो मेरा साल खराब हो जाएगा।"
   चाची यह सुन कर बहुत खुश हुईं। उन्होन शीला को किताबें लादी। पूरी तरह स्वस्थ होकर जब वह स्कूल पहुंची तो प्राचार्य ने यह कहकर उसे वापस भेज दिया कि वह अब सामान्य लड़की नहीं है। इसलिए उसकी पढ़ाई यहां नहीं हो सकेगी। उस समय वह बहुत रोई। उसे लगा उसका जीना अब बेकार है।
   मगर चाची ने उसे समझाया के तुम घबराओ नहीं। अगर तुम्हारे में पढ़ने की लगन है तो तुम जरूर पड़ सकोगी। शीला ने रोते हुए कहा मगर केसे मां? केसे लिखूंगी? केसे पेंटिंग बनाऊंगी? मेरे तो हाथ ही नहीं?
    चाची ने उसे समझाया के बेटी, मेहनत कभी बेकार नहीं जाती। तुम भी सब करोगी। वैसे ही जैसे सब करते है।"शीला रोते हुए कहा मगर मां कैसे? में केसे कर पाऊंगी सब? में तो अपाहिज हो गई और रोने लगी।
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   चाची ने उसके आंसू पोछे। फिर प्यार से समझाते हुए कहा-"देखो शीला, भगवान जब किसी से कुछ छिनता है तो उसे कुछ देता भी है। नहीं तो इंसान का जीना मुश्किल हो जाए। तुम भी तसल्ली रखो में तुम्हारा नाम दिव्यांग बच्चों के स्कूल में लिखवा देती हूं। वहा तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर सकोगे। हिम्मत हारने से कुछ भी हाथ नहीं लगेगा बेटे।"
     उसके बाद शीला स्कूल जाने लगी। मगर फिर भी वह बहुत उदास रहती। एक दिन वह स्कूल से लौटी तो वह बहुत खुश थी। चाची ने उससे पूछा आज मेरी बेटी बहुत खुश है कोई खास बात है? मुझे नहीं बताएगी।
     शीला ने कहा मां-"मेरे साथ एक लड़का पढ़ता है अनिल। वह देख नहीं सकता। वह आंखों का काम हाथ से लेता है। वह छू छू कर ब्रेल लिपि से पढ़ता है। उसके पास एक घड़ी है। उसके उठे हुए अंको को छू कर वह एकदम सही समय बता देता है। उसे देखकर मुझे लगा कि जब वह आंखों का काम हाथो  से ले सकता है, तो फिर में अपने पैरों से हाथों का काम क्यों नहीं ले सकती ?"
    बस, उसी दिन से वह पैरों से कलम पकड़कर लिखने का अभ्यास करने लगी। लिखने के अलावा पेंटिंग बनाना, खाना बनाना कई काम वह पैरों से करने लगी। शुरू में उसे अटपटा लगता था। दिक्कत भी आती थी। मगर चाची ने सदा उसकी हिम्मत बढ़ाई और वह कामयाब होती रही। इस साल वह बारहवीं की परीक्षा दे रही थी। पेंटिंग तो वह इतनी अच्छी बनाती है कि उसने इस वर्ष चित्रकला प्रतियोगिता में अन्य बच्चों की तरह भाग लिया था। आयोजकों के कहने पर भी उसने अधिक समय नहीं लिया और कहा ये बेईमानी होगी और सबके देखते ही देखते पैर में ब्रश पकड़कर ऐसी सुंदर सीनरी बनाई की देखने वाले चकित रह गए।
     अब वह पढ़ने के बाद खाली समय में नए वर्ष, होली, दीवाली, ईद, क्रिसमस, जन्मदिन आदि के कार्ड्स पर सुंदर पेंटिंग बनाती है; और उन्हें दुकान पर बिकने के लिए से आती है। हर महीने वह इतना धन कमा लेती की उससे उसकी जरुरते पूरी हो जाती है। पढ़ने के लिए उसे छत्रवरात्ती मिल रही है। अपने मां- पापा के सामने हाथ नहीं पसार्ती। सच कहूं वह अभी से आत्मनिर्भर बन गई है। उसकी हार अब जीत ने बदल गई है।
    मधु यह सब सुन रही थी। उसे अपनी सोच पर बहुत पछतावा हुआ। शीला उसकी नज़रों में बहुत ऊंची उठ गई।



अयिये सीखे:- हमें कभी किसी से इश्यता या भेदभाव नहीं करना चाहिए


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