गीता का मर्म

                              गीता का मर्म

       बहुत पुरानी बात है आनंदपाल नाम के एक राजा थे। उनका राज्य बहुत बड़ा था वे विद्वानों का आदर भी बहुत करते थे उनके राज्य में बड़े बड़े विद्वान एवं शास्त्र जानने वाले थे दूर के देशों से भी विद्वान आते रहते थे। राजा भी उनका अथोचित स्वागत सम्मान करते थे और भेंट भी देते थे उनके यहां से कोई भी विद्वान निराश होकर नहीं लोटतां था।
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गीता का मर्म
       एक बार राजा ने अपने मंत्रियों से कहा - मुझे श्री मद्भगवतगीता का ज्ञान प्राप्त करना है। अतः आप पूरे राज्य में घोषणा करवा दे की जो भी मुझे पूर्ण रूप से गीता समझा देगा उसे में अपना आधा राज्य दे दूंगा।
      मंत्रियों ने ढिंढोरा पिटवाकर पूरे राज्य के समस्त नगरों तथा ग्रामों में तथा राज्य के बाहर भी घोषणा करने को कहा। ढिंढोरा पीटकर घोषणा की गई- सुनो......सुनो......सुनो हमारे महाराज को जो कोई भी गीता पूर्ण रूप से समझा देगा उसे अधा राज्य दिया जाएगा। सुनो.... सुनो....!
     घोषणा सुनकर दूर दूर से बड़े बड़े विद्वान, पंडित, ज्ञानिजन राजा के पास आने लगे वे राजा को गीता का महत्व समझाते , उसके श्लोकों की विवेचना करते, अर्थ समझाते तथा अनेक उदाहरणों के माध्यम से व्याख्या करते किन्तु राजा की समझ में कुछ नहीं आता। वे सभी से यही कहते - श्रीमान, में आपके प्रवचन से संतुष्ट नहीं हूं मुझे गीता समझ में नहीं आई।
    उसी समय महेश नाम का एक प्रकांड विद्वान भी राजा के पास आया और बोला - राजन में आपको गीता समझाऊंगा। राजा ने कहा - श्रीमान आप व्यर्थ में ही कष्ट कर रहे है आज तक मुझे कोई भी विद्वान गीता का मर्म नहीं समझा पाया आप क्या समझाएंगे ? कृपया आप मेरा ओर अपना समय नष्ट मत कीजिए। महेश ने कहा मुझे एक अवसर तो दीजिए महाराज में आपको अवश्य संतुष्ट कार दूंगा।
    राजा ने कहा - जैसी आपकी इच्छा।
    महेश ने गीता के एक एक श्लोक का अर्थ व्याख्या सहित समझाया। ' धर्म क्षेत्र कुरु क्षेत्र.......... से प्रारंभ कर यात्रा योगेश्वर: कृष्णो यत्र पर्थो धनुर्धर:' तक पूरे सात सौ श्लोक राजा को लगभग कठांस्थ करा दिए। याघपी राजा की समझ में सब कुछ आ गया किन्तु आधा राज्य ना देने के लालच राजा के में समा गया था। उन्होने कहा मेरी समझ में कुछ नहीं आया श्रीमान। महेश ने कहा - राजन आप लालच में ऐसा कर रहे है, जबकि गीता का एक एक श्लोक उसका अर्थ व व्याख्या आप समझ चुके है।
      राजा ने क्रोध में कहा - श्रीमान , वाचलता न दिखाएं ओर मार्ग ग्रहण करे। मैने आपको बताया था कि आपसे पहले भी अनेक विद्वान यह प्रयास कर चुके है और सभी निराश होकर यहां से गए है। आपको भी में पूर्व में मना किया था कि आप मेरा ओर स्वयं का समय नष्ट न करें।
      महेश ने कहा - महाराज। आप असत्य भाषण न दे में गीता की एक एक बात आपको समझा चुका हूं।
      राजा ने कहा - असत्य भाषण में क्यों करूंगा ? यह तो आप ही है जो मेरा आधा राज्य पाने लालच में ऐसी बातें कर रहे है मुझे वास्तव में गीता बिल्कुल भी समझ में नहीं आई।
      महेश ने कहा - राजन आपको गीता समझ ने a चुकी है परन्तु आप अपने दिए हुए वचन से पीछे हट रहे है। इस प्रकार विवाद बड़ता गया।
     इसी समय वहां महायोगी विशाख भी आ पहुंचे दोनों ने मध्यास्थत करने की प्राथना कि। योगिराज विशाख ने राजा से पूछा कि क्या आप गीता को समझे ? राजा ने कहा - नहीं में कुछ भी नहीं समझा। फिर उन्होंने महेश से पूछा कि क्या आपने राजन को गीता अच्छी तरह से समझा दी। महेश ने कहा - जी मुनिवर एक एक शब्द पद व अक्षर की व्याख्या करके समझाया है।
     महायोगी विशाख महेश से बोले - सच तो यह है कि अपने स्वयं ही गीता का मर्म नहीं समझा अन्यथा आप अधे राज्य के लालच के कारण इस प्रपंच में नहीं पड़ते क्योंकि गीता तो निष्काम कर्म करने की शिक्षा देती है, फल प्राप्ति की आशा से कर्म करने की नहीं। राजन ने भी अर्थ नही समझा है, अन्यथा विद्वानों का मान सम्मान करने वाले राजा व्यवहार इस प्रकार का नहीं होता। वास्तव में उपदेश देने का अधिकारी वहीं है जो स्वयं उस पर आचरण करता हो। ज्ञान या स्वाध्याय का अर्थ हमे स्वयं को जानना है। विद्याग्रहण करने के बाद भी जिसने स्वयं को न जाना वह उसी व्यक्ति के समान है जिसके पास नक्शा है पर मार्ग नहीं सूझता।
     ज्ञान हमे रास्ता बतात है इससे हमारी विचार शक्ति बढ़ती हैं ओर देखने की शक्ति व्यापक हो जाती है तथा मनन करने की शक्ति में वृद्धि हो जाती है। हम किसी परिणाम पर नियुक्ति युक्त ढंग से पहुंचने का प्रयत्न करते है विद्या से विनम्रता अती है ओर व्यक्ति शालीन बं जाता है। मन शांत हो जाता है चित्त एकाग्र हो जाता है। मात्र विषयों को जानना ही सच्चा ज्ञान नहीं है, पढ़े हुए को चरित्र में डालना ही सच्चा ज्ञान है।
    इसी तारतम्य में महायोगी विशाख ने एक ओर प्रसंग राजा आनंदपाल तथा पंडित महेश को सुनाया। उन्हें कहा एक बार अर्जुन देवलोक में इंद्र के पास धनुर्विद्या प्राप्त करने लिए पहुंचे परीक्षा में पुरनरूपें सफलता प्राप्त कर लेने पर इंद्र अत्यंत प्रसन्न होकर बोले - अर्जुन तुमने अपने परिश्रम, पुरुषार्थ ओर लगन से धनुर्विद्या प्राप्त कर ली है अब जाओ और प्रथ्वी को जीतकर चक्रवर्ती राजा का सुख भोगते हुए यश का उपार्जन करो।
   इंद्र की बात सुनकर अर्जुन उदास हो गए। उन्हें उदास देखकर इंद्र बोले - क्या बात है वत्स ? अर्जुन ने विनम्रतापू्वक कहा - ध्रष्ता क्षमा करे देव, विजय यश ओर राज्य भीगने के लिए में धनुर्विद्या प्राप्त नहीं की है।
     इंद्र ने कहा - तो फिर इस विद्या का क्या करोगे स्पष्ट कहो।
    अर्जुन बोले - है देव ! सत्य व न्याय की रक्षा, दुष्टों का दमन, असहयो की सहायता, नारी की रक्षा करने, निर्बल को सबल बनाने हेतु ही मैने धनुर्विद्या प्राप्त की है।
   इस प्रसंग ने राजा के मन मे हलचल मचा दी। उन्हें लगा कि रहा के रूप में उनका कार्य जन कल्याण होना चाहिए राज भोग की इच्छा नहीं। उनके में वैराग्य भाव जगत हो गया। उन्होने अपना सम्पूर्ण राज्य गीता का मर्म सुनने वाले पंडित को देने की इच्छा व्यक्त की।
      उधर महाजनी महेश सोचने लगे में तो पंडित हूं,  राज भोग अथवा अधे राज्य का लालच मेरे लिए आत्मकल्याण के लिए उचित नहीं। उनके में में भी विरिकित पैदा हुई ओर वो राज पाट के मोह से मुक्त हो गए।
      महायोगी विशाख ने दोनों के इस निर्णय पर प्रसन्नता व्यक्ति की ओर उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा - अब आप दोनों ही गीता के मर्म को भली भांति समझ गए है।

                        ( धन्यवाद)


        

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